
मैं संतोष दास, पश्चिम बंगाल के बर्धवान जिले के छोटे से गांव गिद्धग्राम का रहने वाला हूं। वो शिवरात्रि का दिन मुझे कभी नहीं भूलता। 300 पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में हम पांच लोगों ने मंदिर में कदम रखा था। पैर लड़खड़ा रहे थे। मंदिर के बाहर दंगे का माहौल
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लोग लाठी-डंडे लेकर खड़े थे। कह रहे थे- गाय का चमड़ा निकालने वाले भगवान नहीं छू सकते। किसी भी वक्त हम पर हमला हो सकता था। जब हमने शिवलिंग पर जल चढ़ाया तो हाथ कांप रहे थे। पुलिसकर्मियों ने हमें चारों तरफ से घेरा हुआ था, ताकि हम पर हमला न हो।
इसी शिव मंदिर से मेरे पापा और दादा को धक्के मारकर बाहर कर दिया गया था। वो लोग हाथ-पैर जोड़ते रहे, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। वो कहने लगे कि तुम लोग नीच हो, गाय के चमड़े का काम करते हो और हम लोग गाय की पूजा करते हैं। तुम लोग अपना अलग मंदिर बना लो।
तब दादाजी ने उन लोगों ये भी कहा कि हमारे घर में बहुएं हैं, दामाद आते हैं, शादी ब्याह होते हैं, कई घरों में लोगों की मौत होती है, तब हम कहां जाएं। उन लोगों ने एक नहीं सुनी। उस वक्त हम बहुत छोटे थे। हमारे गांव में बिजली भी नहीं थी। तेल की बत्ती वाला दीया जल रहा था। शाम में दादा रुंआसे होकर घर लौट आए। उस रात हमारे घर में कोई सो नहीं पाया था। पापा का कहना था कि हम अलग मंदिर क्यों बनाएं। हमने कोई पाप तो नहीं किया है।
उस दिन के बाद से हमने हर दिन अपने दादाजी को जलील होते देखा है। हर दिन उन लोगों के घर जाते थे। चप्पल-जूते भी उनके घर के बाहर ही उतारना पड़ता था। दादाजी उनके आंगन में जमीन पर बैठकर हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते थे, मिन्नतें करते थे। बदले में उन्हें केवल गालियां मिलती थीं। इसके बाद इस हक के लिए मैंने अपने पिता को जलील होते देखा है।

गांव में अपने बिरादरी के लोगों के साथ संतोष दास।
कुछ सालों बाद हमने अपना अलग मंदिर बना भी लिया। दरअसल, हमारे गांव में दलितों के लगभग 200 घर हैं और मेरे दादाजी के दादाजी ने भी कभी इस मंदिर में किसी को जाते नहीं देखा था। ऊंची जाति के लोग हम दलितों को शिव मंदिर नहीं जाने देना चाहते थे। वो लोग गोमांस को लेकर भी हम पर आरोप लगाते थे। जब मैं बड़ा हुआ और ये सब समझने लगा तो एक दिन मैंने ठान लिया कि अब दलित भी इसी शिव मंदिर में जाएंगे। चाहे इसके लिए मुझे कितनी भी लंबी लड़ाई क्यों न लड़नी पड़े।
इस लड़ाई के लिए मुझे गांव के दलितों को राजी करना था। सभी को इस लड़ाई के लिए राजी करना आसान काम नहीं था। सभी को मनाने, उनके दिल में डर खत्म करना, मंदिर में प्रवेश के लिए जोश जगाने में मुझे आठ महीने लगे। हमारा गांव तो हजारों साल पुराना है। मैं नहीं जानता कि मंदिर में प्रवेश कितने सालों से बंद है लेकिन दादा बताया करते थे कि उनके दादा को भी यह सौभाग्य हासिल नहीं हुआ था। जितना हमने सुना है उस हिसाब से लगभग 500 साल से हम दलितों को गांव के शिव मंदिर में जाने की इजाजत नहीं थी।
मेरे लिए यह सिर्फ एक धार्मिक अधिकार नहीं था बल्कि मेरी पहचान थी। जब हमारे घर नई दुल्हन आती और मंदिर जाने के लिए कहती, तो उसे ये बताने में हमें शर्म आती कि मंदिर जाने की इजाजत नहीं है। ऐसे में बहुत खराब लगता था। मैं कई दफा रात को लेटा हुआ सोचता था कि शिव तो श्मशान में रहने वालों को भी अपना लेते थे, तो दलितों के कैसे नहीं अपनाएंगे। मुझे लगता था कि नहीं शिव ने कहीं दलितों को मंदिर में आने की मनाही नहीं की। राम ने दलितों को खुद से दूर नहीं किया।
मैंने धीरे-धीरे अपने लोगों से बात करना शुरू किया, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। बस पीढ़ी दर पीढ़ी उन लोगों ने मान लिया था कि यह रिवाज सदियों से चला आ रहा है। ऊंची जात वालों ने फरमान सुना दिया और हमने सिर झुका कर मान लिया। किसी ने सवाल ही नहीं किया। मुझे तो नहीं भूलता था कि किस तरह से मेरे दादा और पिता ने उन लोगों के आगे हाथ जोड़े थे, मिन्नतें की थी, अपने लोगों को एकजुट करने की कोशिश की थी। मुझे लगा कि दादाजी और पिता तो एकदम अनपढ़ थे। मैं 7वीं क्लास तक पढ़ा हूं, लेकिन कानून तो जानता हूं कि मेरा हक क्या है, क्या नहीं है। इतनी सूझ है मुझे।

वह मंदिर, जिसमें अब संतोष दास की बिरादरी को प्रवेश मिला।
आज से 30 साल पहले की बात है। मैं स्कूल जाता था। जब मेरे पिता की विनती और हाथ जोड़ने से भी ऊंची जात के लोग नहीं माने तो मेरे पिता ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की थी। लेकिन ऊंची जात के सभी लोग इकट्ठा हो गए और बात मरने मारने पर आ गई। मेरे पिता डर गए कि उनकी वजह से गांव में हिंसा न हो जाए इसलिए उन्होंने तमाम कोशिशें छोड़ दीं और आराम से घर बैठ गए। मेरे और मेरे पिता के दौर में एक फर्क है कि मुझे डराया नहीं जा सकता है।
इस तैयारी में मैंने सबसे पहले तो अपनी पत्नी से बात की। जैसे ही उसने सुना तो आग बबूला हो गई। कहने लगी कि तुम्हें क्या पड़ी है, हर कोई अपने अपने काम में लगा है। तुम भी कुछ काम-धंधा करो। किसी और को तो मंदिर जाना नहीं है। बहुत दिन तक हमारी बहस चलती रही, लेकिन मैं जिद पर अड़ा था। पत्नी इस लड़ाई में साथ नहीं थी, लेकिन उसने अब मेरा विरोध करना भी छोड़ दिया था। बस मैं यही चाहता था कि अगर वह साथ नहीं भी दे रही है तो कम से कम विरोध भी न करे।
मैं अकेला घर-घर गया। घर के एक एक सदस्य से बात की। मैंने उनसे पूछा कि हमें मंदिर जाने की इजाजत नहीं है, क्या ये सही है। सभी ने कहा कि गलत है। इस तरह से मैंने अपने साथ 100 लोगों को जोड़ा। हम 100 लोगों ने एक पिटीशन तैयार की। हमने कसम खाई कि इस शिवरात्रि हम शिव को जल अर्पित करेंगे। हमने शहर में एक रविदास संस्था से भी मदद ली, जिसने हमें कानून और प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंचने में सुविधा मुहैया करवाई।
कानूनी कार्रवाई होने पर गांव में खलबली मच गई। कटवा पुलिस और प्रशासन के उच्च अधिकारी गांव में आए। ऊंची जात के लोगों को समझाया कि मंदिर में जाना इन लोगों का कानूनी और सामाजिक अधिकार है, इन्हें रोका न जाए। गांव में पुलिस दल तैनात किया गया। मैंने सोच लिया था कि मरेंगे तो मर जाएं। कम से कम लाश मंदिर से तो उठेगी। मंदिर में जा नहीं सके तो क्या, लाश तो वहां से उठेगी। भगवान का दर्शन करते वक्त कोई मार दे, तो कोई गम नहीं। एक दिन तो मरना ही है। उस दिन हम दस लोगों ने यह मन बना लिया था। लगभग 300 पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में पांच दलितों ने मंदिर में पैर रखा। लेकिन सब शांति से हो गया।
पता है इतिहास में यह लिखा जाएगा कि कैसे हम लोग उस दिन ढोल, नगाड़ों के साथ मंदिर गए। पूरे गांव में दिवाली थी, जश्न था। एसपी मैडम, एसडीएम और तमाम बड़े अधिकारी खड़े थे और हम 5 दलित मंदिर जाने के लिए आगे बढ़ रहे थे।
500 साल बाद हम मंदिर की सीढ़ियां चढ़े तो मैं बस रो रहा था और बोल रहा था कि भोले शंकर गांव में शांति बनाए रखना। हालांकि उस दिन गांव में जो माहौल था उससे मुझे अंदर से डर लग रहा था कि कहीं किसी का कोई नुकसान न हो जाए। मुझे मेरी जान की कोई परवाह नहीं थी। अपने लिए तो मेरे अंदर डर से ज्यादा संकल्प था कि भगवान के दर्शन करने के लिए मरना भी पड़े तो मंजूर। कुछ लोगों के चेहरे बता रहे थे कि वह हमसे नफरत कर रहे हैं, वह नहीं चाहते कि हम वहां जाएं। उनके व्यवहार से हमें फर्क नहीं पड़ता। हमने पहले भी संयम रखा और आज भी संयम रखा है।

संतोष कहते हैं कि हमारा ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर प्रवेश इतिहास में लिखा जाएगा।
आज लगभग 9 महीने से हम लोग मंदिर जा रहे हैं। अभी कोई समस्या नहीं आई है । मेरा परिवार आज भी मेरी जिंदगी की चिंता करता है, लेकिन मैं इसी में खुश हूं कि जो कभी सपने में नहीं सोचा था वो हो गया।
ऐसा लगता है कि मैंने बाबा और पिता का कर्ज उतार दिया। सम्मानित सा महसूस होता है। गर्व होने लगा खुद पर। त्यौहारों पर घर की औरतें जो रुआंसी रहती थीं, अब ऐसा नहीं होता है। वे मंदिर जाती हैं। मेरी आने वाली पीढ़ियों को अब नहीं सुनना पड़ेगा कि तुम मंदिर नहीं जा सकते हो। यह सब कुछ हो सका कानून की मदद से हम जितना भी पढ़े थे कानून की मदद ली। बहुत सूझ आ गई है कि शिक्षित होना बहुत जरूरी है।
(संतोष दास ने अपने ये जज्बात भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा किए हैं)
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